*राज्यसभा से आन्दोलनकारी किसानों को बयानों से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा... क्यों?*

*राज्यसभा से आन्दोलनकारी किसानों को बयानों से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा... क्यों?*

*बिना तैयारी बोले दीपेंद्र हुड्डा को केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर ने करवाया चुप*

*किसी भी विपक्षी सांसद ने तीनों कानूनों के किसी भी हिस्से पर पॉइंट वाइज ऑब्जेक्शन नहीं दर्ज़ करवाया*

3 फरवरी को राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर 3 दिन (14 घंटे) चर्चा का समय रखा गया। पार्टियों में सहमति बनी कि इसी में कृषि कानूनों और कश्मीर के मुद्दों पर भी अपनी बात सकते हैं। यह जॉइंट चर्चा बन गई है। लेकिन, ऐसा करने से कृषि जैसे मुद्दे की धार ख़त्म हो गई है। ऐसा ही कश्मीर के मामले में भी समझ आ रहा है। 

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव आखिर में बहुमत और जरूरी हुआ तो वोटिंग के आधार पर पास करवा लिया जायेगा। यह अवसर विपक्ष के लिए 'हाथ में आया, लेकिन मुंह तक न गया' जैसा है। 
विपक्ष अपनी बात रखेगा, लम्बी लम्बी चर्चाएँ होंगी, किसी की कही बात हैडलाइन भी बनेगी, लेकिन किसानों का और उनसे जुड़े मुद्दों का कोई हल नहीं होगा। आखिर में वोटिंग तो राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश हुए धन्यवाद प्रस्ताव पर ही होनी है। सरकार अपनी ओर से जवाब देते हुए भी चाहे तो किसान और कश्मीर मुद्दे पर विपक्ष के आरोपों का जवाब दे और चाहे तो न भी दे। होना तो ये चाहिए था कि किसान आन्दोलन और कश्मीर के मुद्दों पर अलग-अलग बहस होनी चाहिए थी, लेकिन केवल बात रखने को समय मिल रहा है, विपक्ष इसी बात से संतुष्ट नजर आ रहा है।

राज्यसभा से आन्दोलनकारी किसानों को बयानों से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा। कांग्रेस की ओर से गुलामनबी आज़ाद ने शुरू में औपचारिक रूप से किसानों के मुद्दे को रखा और बाद में कश्मीर में 370 के हटाए जाने को चर्चा में विस्तार से रखा। यही नहीं आखिर में गुलामनबी आज़ाद ने राष्ट्रपति का धन्यवाद किया कि उन्होंने दोनों सदनों को संबोधित किया।

इस मसले पर JDU के प्रोफेसर मनोज झा को सुनना सुखद रहा, उनको सुनना किताब पढ़ने जैसा रहता है। बहुत शानदार बातें आन्दोलन के पक्ष में रखी, लेकिन कृषि मंत्री ने सदन में जवाब देते समय उनकी किसी बात को नहीं उठाया। असल में प्रोफेसर झा आन्दोलन की आड़ में सरकार द्वारा बनाई गई लॉ एंड आर्डर की समस्या पर खुल कर बोले और कृषि मंत्री तोमर का वो विषय नहीं, जिनका है उनको कुछ कहना ही नहीं है।

आज चर्चा समाप्त हो जाएगी और पूरी चर्चा के दौरान केवल सतही बयानबाजी और कुंद हो चुके तर्क ही सुनाई दिए। विपक्ष के किसी भी सांसद ने सरकार के तीनों कानूनों के किसी भी हिस्से पर पॉइंट वाइज ऑब्जेक्शन नहीं दर्ज़ करवाया। मौका भले ही राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का था लेकिन जब सरकार से 'एग्रीमेंट' हो गया कि इसी समय में किसान आन्दोलन पर भी बात रखी जाएगी तो उसके मूल मुद्दे पर विपक्ष क्यूँ कुछ नहीं बोल पाया? कारण क्या है? किसी ने भी तीनों बिलों के किसी हिस्से पर विशेष फोकस क्यूँ नहीं किया? जो विवाद उठे भी, उसका सरकार के पास सीधा जवाब था 'ऐसा कुछ भी इन बिलों में नहीं होने जा रहा, आप बिल को पढ़िए'।

हरियाणा से राज्यसभा सांसद दीपेंदर हुड्डा को तो केंद्रीय कृषि मंत्री ने पंजाब में (कांग्रेस) सरकार द्वारा लागू कृषि कानूनों की बारीकियां बता कर चुप ही करवा दिया। कृषि मंत्री तोमर ने हुड्डा को जवाब देते हुए कहा कि पंजाब के कानून किसानों की जमीन की रक्षा नहीं करते और केंद्र का कानून करता है। जवाब में दीपेंदर से कुछ कहते नहीं बन पाया। यही होता है, जब बिना तैयारी के सदन में बोलने और केवल तेवरों से सरकार को घेरने को कोशिश होती है तो केवल हंगामा ही होता है किसी प्रकार का दबाव नहीं बन पाता।

ऐसे में किसान आन्दोलन के नेता अगर संसद से किसी प्रकार की उम्मीद लगाए बैठे हैं तो उनको विचार बदल लेने चाहिएं। लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में हंगामा तो हो सकता है लेकिन कोई ऐसी बात नहीं हो सकती जिसे किसान आन्दोलन के मंच पर वाहवाही दी जा सके।

*--सलाम खाकी न्यूज से क्राइम रिपोर्टर सुमित कुमार की रिपोर्ट*